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Book online «शायद यहीं है प्यार ....(sample), अभिषेक दलवी [digital book reader txt] 📗». Author अभिषेक दलवी



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प्यार से हुई थी। पर इतना सबकुछ होने के बावजूद भी मेरा घर मुझे पिंजरा लगता था।

हाँ .....' सोने का पिंजरा ' क्योंकी बचपन से मुझे किसी भी बात की आजादी नही थी। बचपन से मैं जो कुछ भी मांगती पिताजी झट से वह चीज मेरे सामने हाजिर करते। पर सिर्फ इस वजह से वह मुझसे प्यार करते थे ऐसा मैं बिल्कुल नही कहूंगी, क्योकी उनकी हर बात में

 

 

 

 

मुझे एक तरह का गुरुर , एक तरह का घमंड दिखाई देता था की वह अपने बच्चों की कोई भी मांग झट से पूरी कर सकते है। बाकी लड़कियों को जिसतरह पिता का प्यार मिलता है वैसे मुझे कभी नही मिला। पिताजी मुझे उनके साथ कभी घुमाने नही लेकर गए , मैं जब बीमार होती तब भी कभी गोद मे सिर रखकर मुझे सुलाया नहीं इतना ही नहीं कभी मेरे साथ प्यार से दो बातें तक नही की। उनके लिए मैं बेटी नही बल्कि एक जिम्मेदारी थी सिर्फ एक जिम्मेदारी। मेरी शादी के बाद वह इस जिम्मेदारी से छुटकारा पानेवाले थे । मेरी ट्वेल्थ की एग्जाम के दो महीने बाद भैया की शादी होनेवाली थी। भैया की शादी के वक्त बाकी औरतों के साथ साथ मेरे हाथों पर भी मेहंदी लगाई गई। तब ही पिताजीने सबके सामने अनाउंसमेंट कर दी की इस मेहंदी का रंग उतरने से पहले मेरी सगाई होनेवाली है। मुझे और पढ़ाई करनी थी पर,

" पढ़ाई लड़कियों के किस काम की ? आगे चलकर उन्हें घर ही तो संभालना होता है।" ऐसी मेरे पिताजी की सोच थी।

मैं जब एलेव्हेन्थ में थी तब ही उन्होंने उनके दोस्त के बेटे के साथ मेरी शादी तय की थी। इसमे उनका निजी स्वार्थ भी था। उनके वह दोस्त मिनिस्टर भी थे। उनकी मद्द से पिताजी पॉलिटिक्स में तरक्की कर सकते थे। पर इस सब मे मैं उस लड़के के साथ मैं खुश रह पाउंगी भी या नही ? यह सवाल बिल्कुल भी उनके मन मे नही आया। जिससे मेरी शादी होनेवाली थी उसके घर मे मैं एक बार गई थी।

भैया के शादी में मैने उसे पहली बार देखा। वह लड़का मुझसे सात से आठ साल बड़ा था , मोटा शरीर , गले मे बड़ी बड़ी सोने की चैन , बढ़ी हुई दाढ़ी मूंछ , आंखों में गुरुर ,चेहरे पर गुस्सा उसको सिर्फ देखकर ही मैं डर गई थी। दो चार चमचों के साथ जीप से गांव में भटकना , बार मे झगडे , मार पीट करना , लड़कियों को छेड़ना इतना ही नही उसपर तीन एक्स्ट्रोशन के केसेस भी थे। पर पिताजी को इस बात की कोई फिक्र नही थी। एक अमीर परिवार में मेरी विदाई करके वह मेरी जिम्मेदारी से छुटकारा पाना चाहते थे।

भैया के शादी के वजह से घर के सारे लोग खुश थे सिवाय मेरे। मुझे अपना भविष्य दिखने लगा था। मेरी माँ बी एड पास थी। उसे बच्चों को पढ़ाना अच्छा लगता था। पर पिताजीने उसकी इतनी छोटीसी ख्वाईश भी कभी पूरी नही होने दी। हमारी हवेली ही उसकी जिंदगी थी। हवेली के बाहर वह खुद की मर्जी से ज्यादा से ज्यादा गाँव के मंदिर तक जा सकती थी। हिंदुस्तान में घर की औरत को घर की देवी माना जाता है , घर को संभालने का हक उसके पास रहता है पर मेरे पिताजी के नजरों में माँ की कीमत एक नौकर जितनी ही थी। वह दिनभर घर के काम करती थी फिर भी उसे दादी की डांट सुननी पड़ती। रात को देर से पापा दारू पिकर आते थे। माँ के लिए कभी कोई गिफ्ट लाते हुए या फिर उससे प्यार से बातें करते हुए पिताजी को मैंने देखा नही पर घर के बाहर कोई बात उनके मन खिलाफ होती तो उसका गुस्सा माँ पर निकलते थे। कभी कभी हाथ भी उठाते थे।

जिस घर मे मैं शादी के बाद जानेवाली थी वहां के हालात भी बिल्कुल ऐसे ही थे। मुझे यह ऐसी जिंदगी बिल्कुल नही जिनी थी। मेरे जिन्दगी में कोई बड़े सपने नही थे। सिर्फ शादी के बाद सुख दुःख बाँटनेवाले लोग ,प्यार करनेवाला पती , एक शांत सुखी परिवार मुझे चाहिए था। पैसा , गहने , गाड़ियों का शौक मुझे नही था पर माँ जैसे प्यार करनेवाली सांस , कभी कभी हँसी मजाक करनेवाले ससुर , विकेंड के दिन हाथों में हाथ पकड़कर घुमाने ले जानेवाला पती इतनी छोटी सी ख्वाइशें थी। पर शायद ये सुख मेरी नसीब में नही था।

मेरी एक बुआ थी। वह गाँव के किसी गरीब लड़के से प्यार करती थी पर दादाजीने उसकी शादी जबरदस्ती किसी दूसरे आदमी से करवा दी। शादी के बाद दो साल तक वह बच्चे को जन्म नही दे पाई इसलिए उसका पती हमेशा हमेशा के लिए यहाँ उसे छोड़कर चला गया। कुछ महीनों के बाद पता चला कि उसने दूसरी शादी की है। पर दूसरी पत्नी भी कभी प्रेग्नेंट नही हो सकी। शायद उसके पती में ही प्रॉब्लेम थी। पर इस सब की वजह से मेरी बुआ डिप्रेशन में चली गई। बाद में उसे पागलपण के दोहरे भी पड़ने लगे। कभी कभी वह जोरजोरसे चिल्लाती थी, कहती थी,

" ओरतों की जिंदगी मतलब सिर्फ तकलीफ .... लड़कियों को भागकर शादी करनी चाहिए ....मैं अगर भाग कर शादी करती तो आज बहुत खुश होती।"

उसे पागल समझकर सब उसे इग्नोर करते थे पर उसकी बातें कभी कभी मुझे याद आती थी। कभी कभी मुझे भी लगता था मुझसे प्यार करनेवाला कोई लड़का ढूंढ लू और उसके साथ इस सब से दूर निकल जाऊ। पर तब माँ का चेहरा मेरे सामने आता था। अगर मैं इस तरह घर से भाग गई तो उसका क्या होगा यह सोचकरही मुझे डर लगने लगता था।

पिताजी के कहने के मुताबिक भैया के शादी के बीस दिन बाद मेरी शादी का और उससे पहले सगाई का मुहूरत निकाला गया। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे वैसे वैसे मेरी निराशा बढ़ती जा रही थी। मैं उस वक्त काफी दुःखी रहती थी। अपने आपको कमरे में बंद करके किसी कोने बैठकर रोती रहती थी। भगवानने मुझे ऐसी जिंदगी क्यों दी इसका जवाब उससे माँगा करती थी। अपनी किस्मत पर नाराज रहती थी।

पर उस वक्त मुझे कहा पता था की भगवानने मेरे लिए इतना अच्छा भविष्य तय किया है। मेरा भविष्य उसके वजह बदल गया। उसके वजह से मुझे इतनी अच्छी जिंदगी मिल गई। वह मेरे लिए इंसान नहीं भगवान था। वहीं " अभिमान देशमुख "

 

 

 

अब आप सोच रहे होंगे वह मेरे लिए भगवान कैसे बना ? क्योंकी अभिमान स्मिता से यानी मुझसे तो नफरत करता था।

क्या मेरे और अभिमान के बीच कोई रिश्ता था ? अगर रिश्ता था तो कैसे बना ?

क्या अभिमान मुझसे प्यार कर रहा था ? अगर वह मुझसे प्यार कर रहा था तो क्या मैं भी उससे प्यार कर रही थी ?

क्या मैं अभिमान से नफरत कर रह थी ? या फिर वह मुझसे नफरत कर रहा था ? अगर वह मुझसे नफरत कर रहा था। तो क्या वजह थी उस नफरत की ?

अगर आपको इन सवालों के जवाब जानने है, तो आपको मेरी और अभिमान की कहानी अॅमेझॉन किंडलपर पूरी पढ़नी होगी।

इस लिंक पर क्लिक करके आप मेरी कहानी तक पहुँच सकते है।

शायद यहीं है प्यार ....

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Imprint

Publication Date: 09-18-2018

All Rights Reserved

Dedication:
लेखक की यह कहानी भी ऐसे दो किरदारों से जुड़ी है, जिनके परिवार , शहर , रास्ते एक दुसरे से काफी अलग है। पर उनका प्यार , उम्मीदे और किस्मत उन्हें उनकी जिंदगी एक साथ जिने के लिए मुमकिन करा देते है। अब उनकी जिंदगी कुदरत का मेल है , किस्मत का खेल है या फिर उनके प्यार का फल है यह कहानी पढकर आप ही तय किजीए।

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