यूं ही बेसबब, Santosh Jha [7 ebook reader TXT] 📗
- Author: Santosh Jha
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स्वभाविक है, आज जो भारतीय समाज व उसकी पापुलर संस्कृति है, उसमें सही-गलत की तहजीब बुरी तरह से पिटी हुई है। यह तो होना ही था।
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सुरों की मुक्कमलियत
हमारे एक चचा जान हमारी रोज बढ़ती औकात से हमेशा दो मुट्ठी ज्यादा ही रहे। इसलिए, भले ही कई मुद्दों पर उनसे हमारी मुखालफत रही पर उनकी बात का वजन हमने हमेशा ही सोलहो आने सच ही रक्खा।
वो हमेशा कहते, जो भी करो, सुर में करो, बेसुरापन इंसानियत का सबसे बड़ा गुनाह है। लोग गरीब इसलिए नही होते कि उनके पास पैसे नही होते। वो गरीब होते हैं क्यूं कि उनको सुर में रहने का इल्म नही होता...!
हमसे एक बार कहा, देखो, तुम मेरे बेहद अजीज हो इसलिए कहता हूं, अच्छा बुरा कुछ नही होता। ये सब आदमी की अपनी गढ़ी हुई बेकार की घिसी-पिटी मोरैलिटी है। इस संसार में दो ही सत्य हैं- सुर और बेसुर। आवारगी भी अगर सुर में करो, तो मुक्कमलियत ही होगी।
... ये जो बाप और चचा होते हैं, इनके साथ एक ही परेशानी है। बात कह कर निकल लेंगे और आप उमर भर सोचते रहिए कि वो जो बात कही, वो असल में कौन से मायने मतलब से कही...!
अब देखिए, ये जो विस्डम आफ वर्ड्स है, ये आपके चारों और वैसे ही बिखड़ा पड़ा है जैसे हवा। अब ये हवा आपको खुद ही अपनी नाक के जरिए फेफड़े में पहुंचानी पड़ती है। कोई ये काम आपके लिए नही कर सकता। रिवेलेशन इस वेरी इंडिविज्युलिसटिक ।
चचा जान ने ही एक कहानी सुनाई। बताया, कि एक नामी संगीतकार मरते वक्त अपने शिष्यों के बहुत पूछने पर बोले, सबसे उम्दा और महान संगीत है हृदय की करुणा। उसके ही सुर को साधो, जीवन-संगीत शायद सध जाये...।
उनकी इस विस्डम में मैने कुछ अपने सुर जोड़ दिए। गाइए करुणा के ही सुर, पर ये शर्त ना रखिए कि लोग वही सुने जो आप गा रहे हैं। ये भी उम्मीद ना रखिए कि आपके सुर को सराहना मिलेगी। एक उमर गुजर जाएगी खुद ही समझने में कि सात सुरों में ही करुणा के कितने राग बन सकते हैं। दूसरों को सुनाने की बात जब तक आएगी, तब वक्त आ चुका होगा।
अपना सुर अपना ही संगीत बनाता है। गाइए, जिनको ये सुर समझ में आयेंगे, ये तय है, वो आपको दाद नही देंगे। बस पास बैठ कर रोएंगे। करुणा शब्द नही पैदा करती। शब्दों को पिघला देती है। अश्क बना देती है...
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बात बस इतनी सी है, हम क्या चाहते हैं अपने बच्चों से?
मूलतः हर इंसान जीवन में कुछ बड़ा करना चाहता है... बचपन से ही परवरिश में यह सिखाया जाता है कि जीवन का उद्देश्य ही है कुछ ऐसा कर जाना कि लोग मरने के बाद भी याद रखें। फिर, हमारे चारों ओर बड़े और सफल लोगों की मिसालें होती हैं कि कैसे बड़ा इंसान सबका चहेता होता है।
मगर, कुछ मूल तथ्य और भी हैं जीवन के, जिसे आम इंसान नजरअंदाज कर देता है और फिर, लेने के देने पड़ जाते हैं। हर मां-बाप अपने बच्चे को महान व बड़ा बनाने का एक ऐसा मानक मन में ठान लेता है, जो उस वक्त समाज व संस्कृति में सफलता का मापदंड माना जाता है। जैसे, आज हर बच्चे को आईआईटी या आईआईएस बनाने की हर अभिभावक की जिद है। लेकिन, जरा एक वैज्ञानिक तथ्य की ओर भी ध्यान दें।
विज्ञान कहता है, हर बच्चा अलग पैदा होता है, भले ही दिखने में सब एक से हों। और जो प्रमुख चीज हर बच्चे को अलग करती है वह है उसकी मस्तिष्क की जन्म के समय की बनावट। वैज्ञानिक तथ्य है कि मस्तिष्क 14 तरह के होते हैं। इसलिए, संभव है कोई बच्चा जन्म के वक्त एक ऐसे मस्तिष्क का मालिक हो जो मोटिवेटर टाईप का हो। ऐसा बच्चा बड़ा होकर एक बेहतर शिक्षक बनने की पूरी काबिलियत रखता है। दूसरा कोई बच्चा सुपरवाईजर मस्तिष्क टाईप के साथ पैदा होता है। वह बेहतरीन मैनेजर हो सकता है। मगर, हम करते यह हैं कि हर बच्चे को आईआईटी या आईआईएस बनाने की जिद में उसे उसकी स्वाभाविक मस्तिष्क प्रवृति से अलग सबकुछ करने को विवश करते हैं।
सांयस अब स्पष्ट कहता है कि कुछ मस्तिष्क आर्ट्स क्षेत्र में जाने के लिए ही बने होते हैं, उन्हें जबरदस्ती सायंस पढ़ाने से उनके जीवन को हम नर्क बना देते हैं। हां, यह भी सही है कि एक व्यस्क मस्तिष्क में 15 प्रतिशत हिस्सा ही जेनेटिक होता है, बाकी 85 प्रतिशत माहौल से सृजित होता है। मगर, शिक्षा के मामले में, जिसकी जो नैसर्गिक मस्तिष्क प्रवृति हो, उसको उसके अनुरूप ही अगर विकसित किया जाये तो समाज को हम वैसे व्यस्क दे पाते हैं जो न सिर्फ बेहतर प्रोफेशनल्स होते हैं बल्कि अपना काम ताउम्र बेहद रुचि से करते हैं। अपने देश में हम जिस चीज से सबसे ज्यादा परेशान हैं, वह है मीडियाक्रिटी, यानि अपने कार्य में विशेषज्ञ न होकर बेहद औसत दर्जे का होना।
हम सब जानते हैं कि कैसे कई बच्चे अपनी मूल मस्तिष्क प्रवृति से बेहद उल्टी शिक्षा में पड़ कर आत्महत्या तक कर लेते हैं या फिर ताउम्र वैसी नौकरी करते हैं जिसमें उन्हें कुढ़न होती है। इसके अलावा, वे अपनी प्रवृति से उल्टे काम करते कभी भी वह विशेषज्ञता हासिल नहीं कर पाते, जैसा एक बेहतर समाज व देश को चाहिए।
बात बस इतनी सी है, हम क्या चाहते हैं अपने बच्चों से? उनकी खुशी या अपनी अपेक्षाओं के बोझ में दबा कर उनकी जिंदगियां खराब करना?
बच्चा चाहे मेरा हो या किसी और का, वह देश और समाज के बेहतर काम आये और जीवन भर खुशी-खुशी अपना कार्य करे, यही तो सार्थक बात है। है ना....!
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जीवन को, अपनी चेतना का, टुकड़ों में ना बांटें....
किसी ने कहा, ऐसा कोई दौर, ऐसा कोई वक्त नहीं हुआ, जब व्यक्ति या समुदायों ने बीते हुए वक्त को बहुत अच्छा व गर्व करने वाला ना कहा हो और भविष्य या आने वाला वक्त को लेकर बेहद आशंकित न रहे हों।
यानि, कहने का तात्पर्य यह कि ज्यादातर लोगों को बीता वक्त बेहतर दिखता है और आने वाला वक्त बेहद अनिश्चित। बीता पल अच्छा, आने वाला पल डराने वाला, तो क्या यह स्पष्ट माना जाये कि अमूमन, आम इंसान अपने वर्तमान के पलों को, कभी भी अपनी पूर्ण क्षमता के अनुरूप नहीं जी पाता। इसलिए ही तो उसे ऐसा लगता है कि गुजरे पलों में ही उसने बेहतर किया और आने वाले पलों में उसकी जिंदगी और भी जटिल और कठिन होने वाली है।
या, इसे इस नजरिये से देखें कि बीता हुआ वक्त एक ठोस हकीकत बन जाता है। इतिहास एक तरह से मूर्त व स्थायी यथार्थ व दर्ज दस्तावेज जैसा बन जाता है, जिसे साफ तौर पर परखा जा सकता है। भविष्य के बारे में हमेशा ही अनिश्चितता बनी रहती है, वह अमूर्त होता है।
तो क्या ऐसा है कि हम सब वर्तमान में भी जिये जा रहे पल को लेकर कभी भी पूर्णतः न आश्वस्त होते हैं न हीं पूर्ण नियंत्रण में। या तो बीते पल में जीते होते हैं या फिर आने वाले पल को लेकर चिंता या भय में...!
संभवतः, जो वर्तमान का अपना मूल चरित्र है, वह भी हमें कभी उसे नियंत्रित कर पाने की सुविधा नहीं दे पाता। कुल मिलाकर चंद सेकेण्ड ही तो हाथ में होते हैं। वर्तमान इतना ही तो होता है... अभी आया, हम संभल भी नहीं पाये कि गया...! कोई भला इस भागते पल को कैसे पकड़े... और जिसे पकड़ ना पायें, उसे नियंत्रित कैसे करें...!
देखें और समझें... वक्त ही नहीं, हमारी चेतना भी बिलकुल ऐसी ही है। किसी भी जिये जा रहे पल में हमारी चेतना भी बहाव में होती है... ये आई और वो गई... इसे उस खास पल या वक्त के चंद लम्हों में पकड़ पाना बिलकुल असंभव दिखता है। इसलिए ही शायद हमारी चेतना भूतकाल में बेहतर दिखती है और भविष्य को लेकर आशंकित...!
मगर, हजारों सालों से, हमारे बेहद सफल व महान पूर्वजों ने हमें कहा है कि इस भागते पल एवं बिखरी हुई चेतना को समेट कर बांध पाना बिलकुल मुमकिन है। और यही जीवन की सबसे प्रबल व लाभकारी उपलब्धि भी। जो बीते पल, वर्तमान का क्षण और भविष्य के पलों को एक तार में, एक सीधी रेखा में, टुकड़ों में नहीं बल्कि एक पूर्णता में देख पाता है, वही बुद्ध है... जिसकी चेतना भूत, वर्तमान व भविष्य के दायरों से उपर उठ कर समय व अनुभूति को एकरूपता व तारतम्यता में देख-समझ पाता है, वही ब्राह्मण है... वही ब्रंह्म है....!
यही बात तो विज्ञान भी कहता है... यथार्थ जब एक हो, तो इंसान का हर ज्ञान एक ही बात तो कहेगा... समझने वाले इसे अलग करके देखने की जिद लिए बैठे हैं। इसलिए, विज्ञान के नजरिये से वक्त, यानि टाईम को जानें-समझें। टाईम एंड स्पेस की अवधारणा को सायंस के नजरिये से देखने से हमारा आध्यात्म बुलंद होता है।
तो चलिए, हम सब जीवन को, अपनी चेतना को, उसकी निरंतरता को, उसके सतत् प्रवाह को, उसके एकत्व बोध को, उसकी एकतारता को, भूत-वर्तमान-भविष्य के टुकड़ों में ना बांटें, बल्कि उसे एक ही निरंतरता व प्रवाह में मंजूर करें और उसे न सिर्फ पूर्ण क्षमता से जियें बल्कि एक उत्सव-भाव से आह्लाद में जियें...
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राज्य व ईश्वर की सत्ताओं के इस अंधेर में शायद अभी देर नहीं हुई है...!
शायद कई हजार सालों पहले, जब इंसान कबीलों में रहता था, उसके जीवन में सबसे बड़ी समस्या थी जीवन की सुरक्षा को लेकर किसी प्रकार की निश्चितता का अभाव। चारों ओर इतना मारकाट मचा होता था, कबीले आपस में हमेशा ही युद्धरत होते या फिर जंगलों में विचरते जानवरों से भी भय होता। कब, कौन, किसे, कितने भयावह तरीके से मार डालेगा, कुछ पता नहीं चल पाता था। भय का माहौल कुछ इस कदर बढ़ा कि इंसानों को दो काम करने को मजबूर होना पड़ा।
पहला, उसने एक समझौते के तहत राज्य, यानि राष्ट्र की अवधारणा को कबूल किया, ताकि राज्य को चलाने वाले उसके जानो-माल की सुरक्षा कर सकें। उसने अपने सारे अधिकार राज्य को समर्पित कर दिये और राज्य की सत्ता के तहत जो सीमित अधिकार उसे दिये गये, उसे उसनें मंजूर किया।
इस सुरक्षा की गारंटी के एवज में उससे तमाम तरह के कर वसूले गये, जिनका बोझ दिनों-दिन बढ़ता ही गया मगर वह सब कुछ सह कर राज्य सत्ता के अधीन रहने को विवश रहा क्यूंकि उसे अपनी, अपनों व अपने बच्चों की सुरक्षा का भरोसा दिलाया गया।
दूसरा, उसे बहुत भरोसा तो नहीं था, मगर उसनें मंजूर किया कि कोई है जो दिखता नहीं, कुछ कभी कहता-सुनता नहीं, मगर वह सबका मालिक है और वह हमेशा लोगों की मदद करता है। उसने राज्य की तरह ही, ईश्वर की सत्ता को भी मंजूर किया। इस सुरक्षा की गारंटी के एवज में उससे तमाम तरह से पैसे व सामान देने पड़े, जिनका बोझ दिनों-दिन बढ़ता ही गया मगर वह सब कुछ सह कर ईश्वर सत्ता के अधीन रहने को विवश रहा क्यूंकि उसे अपनी, अपनों व अपने बच्चों की सुरक्षा का भरोसा दिलाया गया।
आज, हजारों सालों के बाद भी राज्य चलाने वालों एवं ईश्वर की अवधारणा चलाने वालों ने आम इंसान को यह मूलभूत सुविधा नहीं मुहैय्या कराई। करों व खर्चों के बोझ असहनीय होते गये मगर जीने की सुरक्षा अभी तक न राज्य दे पाया, न ही ईश्वर...
राज्य व ईश्वर चलाने वालों ने हजारों सालों से यह आश्वासन दिया कि उनकी सत्ता में देर हो सकती है मगर अंधेर कभी नहीं हो सकता। मगर, थोक के भाव में देर भी हुई और अंधेर तो अपना साम्राज्य लगातार पसारता ही चला गया। एक अदद कानून व्यवस्था, जिसमें किसी के प्रति कोई अनर्थ न हो, और अगर कभी हो भी जाये तो उसे त्वरित न्याय मिले, ऐसा कभी हो न सका.... ईश्वर की सत्ता में वही हुआ जो राज्य की सत्ता में हुआ।
हां, राज्य व ईश्वर की सत्ता के नाम पर जो लूट मची है, लूटने वालों की और गलत को सही बनाने वाले आला हुनरमंदों की फौज में बेतहाशा इजाफा हुआ है। शायद, कुछ हजार सालों को देर नहीं मानना चाहिए... हो सकता है, अगले कुछ हजार सालों में वह सब हो जाये जो अब तक नहीं हुआ है... आम इंसान को राज्य व ईश्वर की सत्ताओं से हमेशा ही यह उम्मीद रहती है कि उनके यहां देर हो सकती है मगर अंधेर कभी नहीं हो सकता... इसी भरोसे पर दुनिया का हर व्यवसाय चलता है... तो इसे चलने दिया जाये...!
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सोच व कर्म का आपसी अनुपातिक अवलंब
एक व्यक्ति बेहद उलझन
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