यूं ही बेसबब, Santosh Jha [7 ebook reader TXT] 📗
- Author: Santosh Jha
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यह समझना ही होगा कि सत्य एक ही है मगर उसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग होती रही है। जो विद्वान है, वह इसे समझ कर सभी अभिव्यक्तियों के प्रति सहिष्णुता का भाव रखता है तथा एक सत्य को उसकी पूर्णता में आत्मसात करने का प्रयास करता है। हमारी सभ्यता-संस्कृति में व्यक्ति के स्तर पर इस मूल सोच के ठीक विपरीत शिक्षा बचपने से ही मिल जाती है जिसे उसे व्यस्क होने पर अनलर्न करना चाहिए।
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वक्त तो लगता है...
पेराडाइम शिफ्ट बेहद मुश्किल काम है... उस से भी कठिन है न्यू पेराडाइम बिल्डिंग ।
नदी की धार के विपरीत चलना दुश्वारियों को निमंत्रण देना है। कम ही ऐसा करने की जरूरत महसूस करते हैं। सक्सेस के बेंचमाक्र्स होते हैं और उसको फालो करना ही पापुलर इंटेलेक्ट और प्रूडेन्स माना जाता है।
कुछ ही साइंटिस्ट्स हैं जो नया रिसर्च करते हैं। ज्यादातर टेक्नालजी डेवेलपमेंट में जाते हैं। कोई भी सक्सेस्फुल सीईओ अपनी कंपनी में सिस्टेमिक चेंजेस नही करना चाहता, सब एग्जिस्टिंग माडल और पेरेडाइम में ही इनोवेट करते हैं। उन्हे पता होता है, किसी भी कंपनी में उनकी शेल्फ-लाइफ तीन साल है और इतने कम समय में कोई सिस्टेमिक चेंज नही हो सकता। कोई पालिटीशियन पापुलर बेंचमाक्र्स के अगेन्स्ट नही जाना चाहता। इसमें वक्त लगता है और इतना पेशेन्स कोई नही इनवेस्ट करना चाहता। निवेश का भी अपना सक्सेस बेंचमार्क है...!
न्यू पेरेडाइम बिल्डिंग की राह कठिन है। एक साइंटिस्ट को 25-30 साल लगते हैं एक नयी थियरी या आइडिया डेवेलप करने में। जैसे ही वो ये थियरी फ्लोट करता है, पूरी साइंटिफिक बिरादरी लग जाती है उस थियरी को रांग प्रूव करने में। अगले 25 सालों तक वो साइंटिस्ट अपनी थियरी को डिफेंड करने और उसमें सूटेबल अमेंडमेंट करने मैं लगा देता है। और इतने सब के बाद जब उसकी थियरी फाइनली वैलिडेट होती है तो वो मर चुका होता है। कई बार नयी थियरी गलत भी साबित होती है।
गैलिलीयो ने 17वीं सेंचुरी में जब ये कहा की सूर्य नही बल्कि पृथ्वी सूर्य के चारो और चक्कर काटती है तो उन्हे चर्च की प्रताड़ना झेलनी पड़ी। लोगों ने उन्हे पागल और अईश्वरवादी करार दिया। आज भी बहुत लोग 12वी सेंचुरी की अवधारणाओं को जीते हैं।
बेहद सहज सरल सी बात है। कोई भी साइंटिस्ट जब कोई नया पेरेडाइम बना रहा होता है या कोई नया अविष्कार कर रहा होता है तो वो ये नही सोचता की उसकी नयी थियरी सही साबित होगी या गलत, लोग उसको एक्सेप्ट करेंगे या रिजेक्ट, तालियां मिलेंगी या गालियां। उसका आनंद सिर्फ इतना है की वो कुछ नया कर रहा है जो अगर गलत भी साबित हुआ तो आने वाले जेनरेशन्स के लिए फायदेमंद होगा।
एक साइंटिस्ट को अगर कोई क्रिटिसाइज करता है तो वो उसको एक्सेप्ट कर के खुश होता है क्यूं कि क्रिटिसिसम से उसके थियरी को अपडेट करने और इंप्रूव करने का मौका मिलता है। साइंटिफिक बिरादरी में इसको बड़ी अहमियत दी जाती है।
जो लोग नयी थियरी से सहमत भी होते हैं वो जान कर उसमें मीन मेख निकालते हैं। साइंटिस्ट को अपनी थियरी को बेटर करने का मौका मिलता है। यही सुख है न्यू पेरेडाइम बिल्डिंग का। अफसोस, ऐसा राजनीति व धर्म तंत्र में नहीं होता!
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बंद मुट्ठी हथेलियों से बड़ी हुआ चाहती है...
बहुत साल पहले, अपने गुलजार साहब ने अपनी एक फिल्म में कुछ कहा। शायरी तब और खूबसूरत हो जाती है जब वो मिजाजी मुकाम से आगे बढ़ कर आलमी और वक्ती हो जाती है। यह तब नही जानता था।
गुलजार साहब ने बेहद खुसुशियत से कहा, बाजारों के भाव मेरे ताउ से बड़े...। बहुत दिनों से मन में था कि ये गुनगुनाउं...। जब भी बाजार जाता हूं, गुलजार साहब बेहद याद आते हैं। अपनी नानी से भी ज्यादा...!
डर के मारे यह कर नही पाता कि कहीं अपने ताउ हुजूर नाराज ना हो जायें। कुछ दिन पहले उनके साथ पान दुकान पर ऐसा हादसा हुआ कि डरता हूं। चचा जान ने पान की गिलौरी गाल में दबाई और आदतन, उंगली भर चूना (सफेदी) जुबान पर चस्पा कर दी। एक भले इंसान ने टोक दिया, भाई जान इतना चूना ना खायें, नुकसान करेगा....!
ताउ साहब खफा हुए और बेहद बेदिली से ये जुमला पीक की तरह उछाल दिया, अब ये चिंदी भर चूना बड़ा या हम...! हम पर ही बरस पड़े, तो के इहे से हम कहे रहे कि घर ही पान लई आवो, अब बाजार ना हमरे काबिल ना हम बाजार के...।
इसलिए हिम्मत नही होती कि यह बेअदबी करूं कि गुलजार साहब की बात जुबान पर ला सकूं। मगर, दिल ही दिल में ये कहने से चूक भी नही रहा। गालिब साहब ने फरमाया है, दिल ही तो है... गम से भर ना जाए क्यूं...!
अब तो हद की इंतेहां हो गयी। यह नामुराद लौकी भी पचास रुपये किलो हो गयी। हमसे रहा ना गया और चचा जान को खुन्नस में सुना आया, बाजारों के भाव मेरे ताउ से बडे...!
ताउ साहेब कुछ बोले नही। कुछ देर पान गुलगुलाते रहे फिर पीक फेंक कर अर्ज किया-
... बंद मुट्ठी हथेलियों से बड़ी हुआ चाहती हैं,
ख्वाहिशें शर्ट की पाकिट से बड़ी हुआ चाहती हैं..!
दादा हुजूर की बात भी याद आती है। बैठा कर 1902 से लेकर अपनी जिंदगी के किस्से सुनाते रहते थे। ताउ साहेब को भी सब याद ही है। जब उन किस्सों का वास्ता दिया तो घरघराई आवाज में ये कह गये -
अब्बा हुजूर ने बड़ी शान से,
अपनी जवानी के किससे सुनाए थे...
कि रूपल्ली ले के निकले थे जो बाजार,
तो बड़े टांगे पर ही लौट पाए थे....
अपनी उसी रूपल्ली को पाकिट में सहेजे हैं,
कि रातों को बेबसी से निहार लेते हैं...
अब बस मुंतजिर हैं, अपना वजूद या वो,
पहले कौन उठता है बाजार से, देखते हैं...!.
इतने सब के बाद ये तय रहा कि हम उनके लिए खुद जा कर एक बेहतरीन पान और ला ही दें। यह शैतान पान भी कभी चार आने की थी, अब दस रुपये की हो गयी है।
सब कुछ ना जाने क्यूं पाकिट से बड़ी हुआ चाहती हैं...!
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अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल...
मैं वो, हम जिस से कभी सहमत होता नही दिखता। वैसे ही, हम वो जिसको मैं कभी मंजूर होने की आरजू तक आने नही देता। और, वो, अपनी संपूर्णता और समग्रता में ये सुनिश्चित करता होता है कि ये जो विविधता है, इसे द्वंद कह लें, उसकी प्राण-ऊर्जा कभी मंद ना होने पाए...!
यही शायद प्रकृति-प्रदत व्यापक सृजन-संहिता है... यही संभवतः विकास-विनिमय व्यवस्था है... ये कालजयी ऊर्जा अनाश्वान रहनी चाहिए। बाकी सब कुछ इस ऊर्जा को यज्ञ की अग्नि की तरह सतत् प्रज्वल्लित रखने के लिए उत्सर्गित होनी चाहिए। इस प्रक्रिया की प्रतिफलता ये सुनिश्चित करती रहे कि इस माया-महिमा के नाट्यशीलता की इंद्रधनुषी छटा सबके हृदय और समग्र स्वरूप को उद्वेलित और अनुगृहीत करती रहे...
यक्ष-प्रश्न है, किम् आश्चर्यम? । यही आश्चर्य भी है, यही सुख भी है, सृजनात्मकता की यही प्रतिष्ठा भी।
इस सीमित सी दिखने वाली असीमित माया-संसार की नश्वरता के बावजूद इंसानों की असीमित और अल्हड़ सृजनात्मकता ही ऐसा परम आश्चर्य व सुख है जिसे ईश्वर भी नही समझ पाते। इस माया-महिमा के नाट्यशीलता की इंद्रधनुषी छटा...!
मदारी रस्सी खीचता है, बंदरिया नाचती है और सभी देखने वाले तालियां बजाते हैं। सामने बैठी गुड़िया भी आदतन आह्लादित है..! कुछ असमंजस के भाव चेहरे पर हैं शायद...? यह तारतम्यता, ये स्वतः-स्फूर्तता जुनूनी है। सब खुश हैं और यह सत्य भी किसी कोने में खड़ा तालियां बजा रहा है कि यह सब कुछ नश्वर है, मगर मिथ्या क्या है? मिथ्या भाव से निस्पृहता...!
अरे...! यह कौन कह रहा है, अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल...!
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आइये, चेतना की निस्पृहता के द्वार की यात्रा करें...
बेहद मुश्किल है यह तय कर पाना कि सबसे खूबसूरत चीज क्या है और वो भी ऐसी कि सबके पास हो और बहुत बहुत ज्यादा हो? क्या ऐसा कहा जा सकता है की ये चीज है द्वंद्, यानी कान्फ्लिक्ट? ... होने, ना होने का द्वंद, सही गलत का द्वंद, नार्मल और डीवियंट का द्वंद। यह अनंत और सर्वव्यापी है। और भला किसके पास इसकी कोई कमी है! सच पूछिए तो यही है सीड-ब्यूटी । इसी बीज से जीवन की सभी भावों के वटवृक्ष फलते-फूलते है।
इसी सीड के विकास के लिए जरूरी तत्व, इसकी मिट्टी है निस्पृहता...!
गीता में कृष्णा कहते हैं, निस्पृह हो जाना ही कर्म है और यही ईश्वर से मिलने का रास्ता भी। अब निस्पृह शब्द और इसकी मूल भावना की परिभाषा आज के सन्दर्भ में खोजना इंपासिबल सा लगता है। बात बेहद सीधी सी ही है। आकाम कर्म का मेटाफर या कहें कि मानक दिया गया है। यानी कुछ करने के लिए कुछ भी नही करना है। निस्पृहता मायने ये बिल्कुल नही कि कुछ करना नही है।
सब कुछ करना है जो होने के लिए वहां आवस्थित है, मगर इसके करने में मैं नही होगा। बल्कि इसके होने मैं सम्मिलित होकर भी मैं का भाव नही आने देना है। यानी, जो वजूद है, जो स्व-बोध है, जो इन्सटिंक्टिव-मैं है, जो इन्टयूटिव-सेल्फ है, वो सब रहते हुए भी उस से जुड़ाव-लगाव नही होना है! शायद मिट्टी जैसी अवस्था-व्यवस्था।
ये बड़ा द्वंद-दुविधा है। एक तरफ आज जो स्थिति है, जहाँ मैं का स्वरूप इतना विस्तार पा चुका है कि उसकी परिधि हर चीज को स्वयं में समेटने के लिए लालायित दिखती है। माडर्न लिबरल सोसायटल सेटअप में, जहां मार्केट एकानमी इंडिविजुयल के इन्स्टेंट-सेल्फ-ग्राटिफिकेशन को हर बिहेवियर-एक्शन-रिएक्शन का बेसिक आपरेटिव यूनिट और प्रूडेन्स मानता है, वहीं यह बात कही जा रही है कि बीइंग को और इंसटिंक्ट को सब कुछ से अनअटैच्ड रखिए...!
सबसे पहली चुनौती तो ये है कि इस बीयिंग को अपने इन्स्टिंक्ट से कैसे अनअटैच करें। पहले पता तो चले कि ये इंसटिंक्ट है क्या। इसमें कौन सा पार्ट नेचर का है और कौन सा नर्चर का। इस गट फीलिंग या सोल-वाय्स को परिष्कृत करके ही इंसटिंक्ट का वाय्स सुनाई पड़ेगा मगर इस सोल-वाय्स में सोशियलाइजेशन और कल्चरल बेंचमार्क्स की मिलावट से कैसे छुटकारा मिले! छुटकारा संभव भी है? क्या नेचर-नर्चर का डिवाइड सेग्रिगेबल है भी? क्या इतनी आब्जक्टिविटी इंसान के लिए पासिबल है?
धर्म में, आब्जेक्टिविटी की इतनी कठिन प्रतिस्थापना है की आम इंसान तो इसको समझ भी नही सकता। गीता में वांच्छित कर्म की अनुशंसा आसान नही है। कहा गया है, जीवन नश्वर पर मिथ्या नही, अनासक्त होना है विरक्त नही, निस्पृह होना योगीस्वरूप होने जैसा दिखता भले हो मगर दोनो अलग-अलग स्थितियां हैं। अकाम कर्म ही कर्मण्यता है, जो प्रकृति-शुद्ध अकर्म है वही कर्म है, कर्म कार्य नही पर यज्ञ-स्वरूप है। यज्ञ जैसी उत्सर्ग-प्रायणता ही कर्म की कर्मण्यता है। स्थूल और सूक्ष्म की संधि-स्थल पर अकाम-रूप में स्थित है कर्मण्यता!
विचित्र संशय और द्वंद की स्थितियों का वर्णन जैसा ही लगता है ये सब। कहा भी गया है गीता में कि इस द्वंद के दो छोरों में एकल एवं एकपक्षीय स्थिति में खड़ा होना है इंसान होना। मगर वो सिर्फ ईश्वर ही है जो इस द्वंद के मध्य में स्थित होकर भी दोनों छोरों की स्थित-प्रग्यता में अवस्थित है। ये परम-पद ईश्वरी्य ही है, आम इंसान को अनुपलब्ध है!
मगर, ऐसा भी नही है कि यह परमपद इंसान को नहीं मिल सकता। कोशिश की जाए तो काफी हद तक निस्पृहता इंसान को भी उपलब्ध हो सकती है। अगर आप इस के मेकेनिज्म को समझ लें, अपने स्व के तत्वों एवं ईश्वर तत्वों के मर्म को समझ लें, तो निस्पृह हो पाना भी संभव है। उपलब्धि अपनी चेतना को निस्पृहता के द्वार तक ले आने पर सामने साफ दिखने लगती है। आइये, इस द्वार की चेतन यात्रा करें....
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इतना भी क्या कम है?
सबको पता है, सीधी उंगली से घी नहीं निकलता... इसलिए, उंगली टेढ़ी करने में लोग वक्त नहीं लगाते...! बुद्धिमान-चालाक-सुगढ़ होने में देर ही कितनी लगती है, अमूमन पता भी नहीं चलता उंगली कब टेढ़ी हो गई...
सीधा-सहज-सरल-सुगम होने में वक्त लगता है... सहजता-सरलता को बचा कर, सहेज कर रखने में वक्त लगता है... पर भाई जान, इतना वक्त कहां है किसी के पास...! फिर, चारो ओर शोर भी तो यही है - कोई चालाक हो जाये, उंगली टेढ़ी कर घी निकालने के हुनर की उस्तादी पा जाये तो घर-समाज के लोग कहते हैं- चलो बच्चा अब बालिग हो गया... पूत सपूत होई गवा, अब कोई टेंशन नहीं है, देर-सवेर बड़ा आंदमी बन ही जायेगा...!
... याद रहे, यही उंगली जब सीधी हो जाये और उठा कर दिखा दी जाये तो बड़े-बड़ों को पवेलियन का रास्ता देखना पड़ता है।
बात बस इतनी सी ही है - इस मुए घी के लिए क्यों करते हैं उगली को टेढ़ा? बड़े साहब अगर घी ना खाकर कड़ुवा तेल
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