यूं ही बेसबब, Santosh Jha [7 ebook reader TXT] 📗
- Author: Santosh Jha
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चेतना (Consciousness), 2. बोधत्व (Cognition), 3. चित्त की वृत्तियां (Causality).
योग-दर्शन में चित्त की वृत्तियां, यानि Causality पर बेहद जोर दिया गया है। इसे समझ लेने से हमारा जीवन सहज-सरल तो हो ही जाता है, साथ ही हम अपनी सारी समस्याओं को देख-परख कर उनका बेहतर समाधान निकाल पाने की स्थिति में होते हैं। इसे समझें -
सबसे पहले चित्त की वृत्तियों की परिभाषा व इसका महत्व समझें। योग-दर्शन में कहा गया है कि जैसी इंसान की चेतना होती है, वैसा ही उसका बोधत्व हो जाता है और इसी बोध के प्रभाव के कारण चित्त की वैसी ही वृत्तियां, यानि काउजैलिटी बनने लगती है। यानि, इंसान जिसे अपना नसीब या डेस्टिनी मानता है, वह उसकी एक विशिष्ट सब्जेक्टिव चेतना के फलस्वरूप उपजे बोधत्व के कारण स्थापित चित्त की वृत्तियों का ही परिणाम है।
यही बात आधुनिक विज्ञान भी कहता है। विज्ञान के अनुसार - ‘Your Consciousness decides your Cognition and this in turn leads you to the causalities in life, which evolves your perception of utility and worth- What you finally attain or lose, which you describe as your destiny is primarily the outcome of this causality, affected by other factors and elements in the ambient milieu where you stand.’
इसे जरा विस्तार से समझें। योग-दर्शन में कहा गया कि चित्त की वृत्तियां वैसे तो असंख्य हैं, मगर उन्हें मूलतः पांच श्रेणियों में रखा जाता है -
प्रमाण वृत्तियां - पांचों इन्द्रियां जैसा प्रत्यक्ष में दिखाती हैं, वैसा ही देखना व समझना।
विपर्यय वृत्तियां - जो है, उसके विपरीत समझना, यानि असली स्वरूप के ठीक विपरीत को सत्य समझना।
विकल्प वृत्तियां - सुनकर, अपनी कल्पना के आधार पर अलग अर्थ समझना।
निद्रा वृत्तियां - कुछ भी नहीं समझ में आने का अहसास होना, जैसे नींद से उठे हों।
स्मृति वृत्तियां - अनुभव का साक्ष्य-रूप में प्रकट हो जाना। यानि जो हमारा पहले के अनुभव से सही मानने की समझ है, उसी को सत्य मान लेना, भले यथार्थ कुछ भी हो। इसे अंग्रेजी में pre-occupied mind कह सकते हैं यानि, sub-conscious mind influencing conscious positioning towards a realism.
विज्ञान में इसे ऐसे कहा गया है - You are in your perspectives and your perspectives are in you. यानि, जैसी आपकी चेतना, वैसी ही आपकी सोच व बोध एवं उसके अनुरूप ही आपका भाग्य या वर्तमान-भविष्य बनता है।
हम सब इंसान अलग-अलग चेतना वाले जीव हैं। विज्ञान के अनुसार कोई दो दिमाग एक जैसे नहीं हो सकते। चेतना मूलतः दिमाग की वजह से ही उपजी अमूर्त प्रतीती है। इसलिए इस संसार में विभिन्न लोग बेहद अलग-अलग चेतना वाले हैं इसलिए ही उनके किसी एक विषय या वस्तु की सार्थकता एवं उपयोगिता को लेकर बोध भी हमेशा भिन्न होने की संभावना रहती है। इससे ही द्वंद्व एवं विवाद उपजता है। चूंकि हमारे बोध अलग-अलग हैं, इसलिए व्यक्तिगत बोध के अनुरूप ही हमारी सार्थकता की परिभाषा अलग-अलग होती है और इसी कारण, हमारे कर्म व व्यवहार भी अलग-अलग होते हैं। इस तरह हर व्यक्ति अपने अलग-अलग कर्म की प्रधानता की वजह से अपनी नीयति व भाग्य गढ़ता है।
इन सब चर्चा के पीछे मकसद यह है कि हम सब यह जान सकें कि हमारी चेतना व बोध का आपस में एक गठजोड़ है। इसी गठजोड़ के अनुरूप ही हम सब के कर्मों की काउजैलिटी, यानि चित्त की वृत्तियां बनती हैं। इस मूल प्रक्रिया की वजह से ही हर व्यवहार, हर कर्म, हर सार्थकता का बोध व कर्म की परिणति बनती-बिगड़ती है।
अब योग-दर्शन में जो मूल ज्ञान दिया गया है, वह कहता है कि चेतना-बोध-चित्त की वृत्तियों के इस आपसी गठजोड़ को समझना है और जीवन के किसी भी निर्णय के पहले शांत मन व सहज-सरल चित्त से इस बात का विस्तार से विश्लेष्ण करना है कि मैं जिस कर्म व व्यवहार को सही व सार्थक समझ रहा हूं, या गलत व निरर्थक समझ रहा हूं, उसके पीछे मेरे निजी बोध व निजी चेतना में कौन व कैसे तत्व व कारक है। यानि कौन से एलीमेंट्स व फैक्टर्स मेरे सही व गलत के निर्णय को प्रभावित कर रहे हैं। फिर उन एलीमेंट्स व फैक्टर्स के सभी पहलुओं व पक्षों के मतों व विचारों के मद्देनजर आब्जेक्टिवली जांच-परख लें। जो आपका निर्णय या सही-गलत का मत है, उसके एकपक्षीय होने की संभावना हमेशा ही रहती है। इसलिए ही चेतना एवं बोध का होलिस्टिक, यानि समग्र होना हम सब के लिए हमेशा ही बेहद लाभकारी होता है।
अगर हम ऐसा कर पाये तो हम सब सफलता व सार्थकता को भी समग्र बना पायेंगे और इससे हमारी खुशी व सुकून बढ़ता रहेगा। हम सुख व दुख दोनों को ही जब समग्रता से देख-समझ पायेंगे तो हमारा सुख ज्यादा व्यापक हो पायेगा व दुख सीमित बन पायेगा।
योग-दर्शन में कहा गया है - जीवन का उद्देश्य है आत्मकल्याण और चेतना-बोध-चित्त की वृत्तियों के इस आपसी गठजोड़ तथा इससे उपजे द्वंद्व व उलझाव को समझ लेने से आत्मकल्याण के द्वार खुल जाते हैं। जीवन फिर सहज-सरल-सुगम व सुखद हो पाता है।
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पात्रता का प्रश्न...
बहुत पहले पढ़ा था, विद्या से विनय मिलता है, विनय से पात्रता। ये समझ में आ गया था कि पहले स्वाध्याय करना चाहिए इंसान को। खुद से विद्या हासिल कीजिए, इससे इंसान हंबल यानि विनीत होता है और जब हंबल होंगे तब शायद आपमें पात्रता, यानी एलिजिबिलिटी आ पाएगी। ये भी आप नही तय करेंगे। ये उस्ताद तय करेंगे... अगर आप गुरु कृपा के योग्य हुए फिर आप कुछ पा सकते हैं।
ये जो प्रश्न है पात्रता का, एलिजिबिलिटी का, ये हाइली डिबेटबल है। अब खास कर के और भी ज्यादा। एलिजिबिलिटी बहुत बड़ा पहलू बन कर उभरा है इंसान के इवोल्यूशन चेन में। आज इस संसार में अधिकांश समस्याओं को इस पात्रता शब्द का बाइ-प्राडक्ट माना जा सकता है। जैसे जैसे उपभोगवदिता बढ़ेगी, संसाधनों के डिस्ट्रिब्यूशन पर और प्रेशर बढ़ेगा और सेलेक्टेड लोगों में इनके पोजेशन और उपभोग के लिए पात्रता की कसौटी और भी कांपिटिटिव होती जाएगी। कान्फ्लिक्ट और ईगोयिस्टिक टकराव और भी बढ़ जायेंगे।
अभी ही, अमेरिका में, 85-90 प्रतिशत शेयर्स और बांड्स सिर्फ 5 प्रतिशत लोगों के पास हैं। इंडिया में भी कुछ ऐसा ही है। सिर्फ 5 प्रतिशत आबादी के पास ही कारें हैं। यहां भी विकास हो रहा है मगर संसाधन कुछ ही हाथों में सिमटते जा रहे हैं। तो सवाल है की क्या सिर्फ 5 प्रतिशत लोग ही पात्रता रखते हैं? लोगों का कहना है कि पात्रता का प्रश्न ही सोसाइटी में कान्फ्लिक्ट और स्ट्रगल का कारण है।
पात्रता को लेकर सवाल ट्रान्सेनडेंटल हैं। क्या सब लोग ईक्वल नही हो सकते? सबको सब कुछ क्यूं नही मिल सकता, जितना भी हो? ये पात्रता का सवाल ही क्यूं? मानव होना ही क्या पात्रता नहीं? धर्म कहता है, 80 करोड़ जन्म कीड़े-मकोड़े और जानवर के रूप में लेने के बाद इंसान का जन्म नसीब होता है। फिर भी ये पात्रता का प्रश्न क्यूं? ये ईश्वर भी सबको एक जैसा नसीब कहां देता है? क्यूं ये नश्वर संसार इस पात्रता के नाम पर भेद-भाव और गैर-बराबरी का इतना बड़ा यूनिवर्स खड़ा कर देता है? जबकि, लेकर कोई कुछ नहीं आता और लेकर जाता भी कुछ नहीं...! यह सत्य तो पात्रता की जरूरत से परे है...!
सभी धर्म ग्रंथ, सभी भाषाओं के लिटरेचर और ह्यूमन विस्डम के सभी विषयों में ये सवाल किसी ना किसी रूप में अपने विशाल स्वरूप में खड़ा होता है। और ये सब अपना जवाब भी देते हैं। पात्रता क्या है? कौन एलिजिबल है? किसको कितना मिलना चाहिए और किस बेसिस पर? इस सब की कसौटी के अपने अपने सिद्धांत दिए गये हैं। लेकिन, कभी भी, कहीं भी, ये नही हो किया जा सका कि पात्रता के प्रश्न को ही समाप्त कर दिया जाए....।
पात्रता समाप्त करना तो दूर की बात है, अब इसका एक लेवेल और बढ़ा दिया इंसानों ने। पात्रता से ऊपर अब सवाल है श्रेष्ठता का! पात्र कौन होंगे ये सवाल खत्म नही किया जा सका बल्कि इसमें ये जोड़ा गया कि पात्र कोई भी हो, उनमें भी श्रेष्ठ कौन है? सबको सब कुछ एक जैसा तो मिल ही नही सकता। मिलेगा उसी को जो पात्र होगा और उन पात्रों में भी उनको ज्यादा मिलेगा जो श्रेष्ठ होंगे...!
यहां तक कि अब ये भी सवाल है कि प्रेम और करुणा भी सबको यूं ही नही मिल सकती। ये कोई नैचुरल और जन्मसिद्ध अधिकार नही है, इसको पाने के लिए भी आपमें पात्रता होनी चाहिए! ये कितना उलझा हुआ सा लगने लगा है। है ना...!
कंटेंपररी सोसाइटी में ये दो शब्द ना जाने कितना कान्फ्लिक्ट पैदा करते हैं। अंग्रेजों ने हम पर शासन किया और कहा कि भारतीय खुद अपने को शासित कर सकने के पात्र नहीं हैं, इसलिए ये वाइटमैन का बर्डेन है। ब्राह्मणों ने शताब्दियों तक समाज में अपनी श्रेष्ठता बना कर रक्खी और कहा, दलित पात्रता नही रखते। आज भी औरतों को हर मुकाम पर अपनी पात्रता और श्रेष्ठता साबित करने के लिए पूरे सिस्टम से लड़ाई करनी पड़ती है... क्यूं भला...?
पात्रता के कई डाइमेन्सन्स हैं, कई पहलू हैं। एक ऐसा पहलू है, जिसका सोसायटल या कलेक्टिव कोई भी आस्पेक्ट नही। ये मूलतः इंडिविजुअलिसटिक है। आम तौर पर हम लोग दोनो पहलू को मिला कर देखते हैं - सोसायटल और इंडिविजुअलिसटिक, यानि सामाजिक व व्यक्तिगत। ये अलग ही देखा जाना चाहिए। इंडिविजुयल पात्रता अपने इंटर्नल विस्डम के लिए है। ज्ञान मार्ग पर चल पाने के लिए जो पात्रता है, उसका सोसायटल पात्रता से कोई लेना देना नही। इस पात्रता में कितने भी लोग कंपीट करें, कोई कान्फ्लिक्ट नही। कान्फ्लिक्ट तब है जब कोई चीज सीमित हो और ढेर सारे लोग उसको पाने के लिए कंपीट कर रहे हों। दुनिया के 100 प्रतिशत लोग भी अगर इस संसार का सारा का सारा ज्ञान और विस्डम पाने की कोशिश करें तब भी कोई कान्फ्लिक्ट नही। ये ऐसा क्लास रूम है जहां सभी एक साथ फर्स्ट कर सकते हैं। सब कोई सब कुछ पा सकता है। कोई ईगाईज्म भी नहीं...
एक पात्रता सोसाइयेटल है, एकानमिक है जो समाज का ही सुपरस्ट्रक्चर है। इंसानियत की पात्रता सोसाइयेटल नहीं है, यह हाइली इंडिविजुअलिसटिक है, क्यूं कि, सोसायटल पात्रता के लिए जो विस्डम है वहां कांपिटीशन है कि कौन कितना पा सकता है। कोर डिजाइर है हासिल करना, सिर्फ महसूस करना नही। जैसे, अगर एक बीघा खेत में धान लगा हो, तब ये कांपिटीशन हो सकता है कि जो जितनी देर तक धान काटेगा वो ज्यादा पा जाएगा। तो फिर पात्रता का प्रश्न है कि कौन ज्यादा स्टैमिना रखता है। किसको कटाई का ज्यादा व बेहतर स्किल है और फिर इस कसौटी पर कांपिटीशन और कांफ्लिक्ट पैदा होता है।
लेकिन, पात्रता का जो दूसरा पहलू है, जो इंडिविजुअलिसटिक, वो अमूर्त के दायरे में है। वहां पहले से कुछ भी नही जिसको पाना हो। अपनी जमीन तलाशिए, खुद ही हल चलाइए और खुद फसल उगाईये, और जब फसल आबाद हो जाए, तब आगे बढ़ जाइए। देखिये भी मत फसल की ओर। आपकी ना जमीन है ना फसल। आपकी है बस मेहनत। इस मेहनत से जुड़ा है पा जाने का अहसास। और इस मेहनत से आपको मिलने वाला संतोष, यही सबसे बड़ी उपलब्धि है...
कौन रोकता है किसी को। मगर 5 प्रतिशत क्या, बामुश्किल 5 लोग ही हैं जो समझ पाते हैं इस पात्रता और इस कवायद की संतुष्टि का मर्म। सबको यही लगता है - बताइए, हम क्या इतने बड़े मूर्ख हैं कि जमीन पर मेहनत करें हम, वो भी उस जमीन पर जो मेरी नहीं और उस पर से जब फसल तैयार हो तो उसको छोड़ कर आगे बढ़ जायें...! इतना लल्लू समझ लिए हैं का हमको...!
ये बेहद सरल है। मंदिर जाइए, भगवान से उम्मीद है कुछ हासिल करने की, तो स्वाभाविक है उस मंदिर जाएंगे जिसको ख्याति प्राप्त है, जहां मुरादें पूरी होती हैं। मंदिर जाइए, तीन घंटे तक लाइन में लगे रहिए। फिर दर्शन कौन देंगे, वही पत्थर के भगवान! आपकी अगर सोसायटल पात्रता है, श्रेष्ठता है, तो तुरंत वीआईपी एंट्री मिल सकती है।
या फिर आप अपनी पात्रता का दूसरा पहलू पा जायें। किसी नदी किनारे शांति से बैठ जायें... कोई पत्थर उठा लें... मन में करुणा और प्रेम भर लें और कहें, मेरे अंदर के भगवान, थोड़ी देर के लिए इस पत्थर मे आ बसो ताकि मैं बाहर से भी तेरी आराधना कर सकूं। वैसे तो अंदर तुझको ही भजता रहता हूं... कोई वीआईपी पास की जरूरत नहीं, कोई विशेष पात्रता की जरूरत नहीं, कोई सामाजिक श्रेष्ठता की जरूरत नहीं...! लेकिन ये करेगा बस 5,
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