यूं ही बेसबब, Santosh Jha [7 ebook reader TXT] 📗
- Author: Santosh Jha
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किसी इंसान ने बेहद उम्दा मेटाफर बनाया। कृष्ण ने अर्जुन से गीता में कहा, ‘मैं भी बस एक वर्केबल कैटेलिस्ट हूं, जिसको जो चाहिए होता है, जिस चीज की इच्छा रखता है, उसको वही मिलता है। मैं उसको ही फेसिलिटेट करता हूं।
खुद ईश्वर किसी को कुछ नही देते। अब इंसान जो मांगे। एक अजगर मांगता है उसको एक शिकार मिल जाए बैठे बिठाए, मिल जाता है। एक शिकारी मांगता है, एक अजगर मिल जाए उसके स्किन से जूता बनाने के लिए, उसको भी मिल जाता है। सब को सब कुछ मिलता है जो वो चाहता है। अब ये इंडिविजुअल की पात्रता है कि कोई क्या चाहता है। आपके च्वायस ही आपको बनाते हैं...!
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बिना निष्कर्ष की कहानी....
एक सच्चा इंसान हुआ करता था...!
... अब लीजिए, हो गया शुरू विवाद... ये कैसे कहा कि सच्चा ही था। इंसान था ये तो फिजिकली एग्जामिनेबल फैक्ट है। सच्चा था, ये कैसे तय किया?
सच्चा कहने का आशय ये है कि उसको ये पता था और वो इस बात को प्रैक्टिस में भी लाता था कि किसी भी चीज का नजरिया युजुअली एक नही हो पाता। जितने व्यूज उतने ही प्यांट्स आफ व्यूज हो सकते है।
मेजारिटी आफ ग्रेट्स ने माना है कि किसी भी चीज को समझने के लिए होलिसटिक अप्रोच ही अच्छा है। ये बल्कि अच्छा है की मल्टीप्लिसिटी आफ व्यूज हैं और सबको मिला कर ही सच का अन्वेषण होना चाहिए।
अच्छाई का यही यार्डस्टिक है, यही बेंचमार्क है ट्रान्सेनडेंटल विस्डम का। इसलिए कहा कि एक इंसान था जो अच्छा था, क्यूं कि वो होलिजम में बिलीव करता था। प्रैक्टिस भी करता था।
उस इंसान ने भी सब कुछ देखा, शायद गौतम बुद्ध की तरह। फिर उसको होलिजम का विस्डम समझ में आया, बिना किसी जंगल में गये।
लेकिन, ये समझ में आ गया कि ये दुनिया ‘डिफरेंट पायंट्स आफ व्यूज की युद्ध-भूमि बन कर रह गयी है। जबकि उसको किसी भी तरह से कोई कान्फ्लिक्ट दिखता ही नही था। तो उसने ये तय किया कि अपना विस्डम सिर्फ आप के लिए ही होता है। सबको अपना अपना विस्डम खुद ही पाना होता है।
एक दिन ये इंसान सबको छोड़ कर एक जंगल में चला आया। वहां उसको कुछ दिन के बाद लगा कि सब कुछ करने के बाद थोड़ा सा वक्त बच जाता है। अगर कोई साथ होता तो उसके साथ थोड़ा बातचीत करके अच्छा लगता।
तो उसने जंगल से एक हिरण के बच्चे को उठा लिया जिसकी मां उसको जन्म देते ही मर गयी थी। वो हिरण उस इंसान के साथ रहता और उस से बात करके वो इंसान खुश होता।
समय बीता तो वो हिरण भी उस इंसान के साथ ध्यान में बैठ जाता। जब वो इंसान ध्यान करता तो हिरण भी अपने दो पैरों पर खड़ा हो जाता और आंखें बंद कर के ओम की आवाज निकलता। कहते हैं, एपिंग, यानि नकल करना हर जीव का फस्र्ट इंस्टिंक्ट है। वो हिरण वही कर रहा था... और कोई बात ना थी। कोई चमत्कार नही था। ये बात उस इंसान को पता थी।
कुछ दिन बाद पास के एक गांव से कुछ लोग वहां आए और उनको उस हिरण को ध्यान करता देख लगा कि ये इंसान जरूर कोई बड़ा साधु महात्मा है जिसके प्रताप से ये हिरण भी पुण्यात्मा हो गया है और इंसान की तरह ही ध्यान करता है और बोलता है।
फिर क्या था, कई लोग उस आदमी के भक्त हो गये। कुछ लोग चेला हो गये। वो इंसान चुप रहा। उसको हंसी ही आती। मगर वह किसी से कुछ कहता नहीं।
खैर... एक दिन वो आदमी मर गया। उसके एक चेले ने सोचा, यही मौका है। उसने उस हिरण को खूब हरी हरी घास खिलाई और फिर ध्यान में बैठ गया ये सोच कर की हिरण उसको ध्यान में देख कर वैसे ही करेगा जैसे उस आदमी के लिए करता था जो मर गया, और वो उस की जगह ले लेगा, महात्मा कहलाने लगेगा।
बहुत प्रयास किए मगर हिरण कुछ भी नही करता। बस चुपचाप पड़ा रहता। कुछ खाता भी नही। एक दिन वो हिरण भी मर गया... उस चेले को ये समझ में कहां से आता कि किसी का विस्डम सिर्फ उसी का होता है... दूसरे उसको नही पा सकते... दूसरा भी विस्डम पा सकता है। मगर सिर्फ अपने प्रयास से...
बुद्ध को जब विस्डम मिला तो वो चुप हो गये। उनको समझ में आ गया कि अगर वो कुछ भी कहेंगे तो उसका सही अर्थ कभी भी नही लग पाएगा। बहुत दिनों तक वो चुप रहे, मगर बाद में जब उनको दूसरों का दुख नही देखा गया तो वो सरमन्स देने लगे।
लेकिन, हुआ वही। बुद्ध के उपदेश और उनका विस्डम आज बेहद कम ही दिखता है... ज्यादातर लोग बस इस कर के ध्यान कर रहे हैं कि कहीं हिरण उनके साथ ध्यान करने लगे तो वो भी बुद्ध हो जायेंगे। अब तो हिरण भी मर गया... बुद्ध ही क्यों, हर महान इंसान की ज्ञान-परंपरा के साथ वही हो रहा है। हर मर्म, हर ज्ञान, हर विवेक का रीचुअलिस्टिक स्परूप ही वजूद में दिखता है, मूल तत्व कब का खत्म हो गया....
तो... इस कहानी का निष्कर्ष क्या है...?
कोई निष्कर्ष मत निकालिए.... बस मुस्कुराइये... अपना अपना हिरण तलाशिए... होलिजम के यूनिवर्स को अंदर वजूद में समा लीजिए... और फिर, थोड़ा और मुस्कुराइये...!
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अमरत्व प्राप्ति का सहज सरल सुगम तरीका
जीवन की अपनी यात्रा है... शरीर की अपनी सीमाएं भी हैं... शरीर की यात्रा में वक्त और मुकाम के मानक मील का पत्थर डालते हैं। एक बार जो वक्त गुजर गया तो फिर उसे वापस नहीं किया जा सकता... 50 साल के हुए तो फिर 20 साल के नहीं हो सकते।
इससे अलग, चेतना की अपनी यात्रा है... इसमें समय और मुकाम अगर हों भी तो वे बेहद सूक्ष्म ही होते हैं, उनका मूर्त रूप में कोई वजूद खास नहीं होता। चेतना समय के बंधन में नहीं होती... आपका शरीर अगर 50 का हो जाये तो फिर 20 का नहीं हो सकता मगर, चेतना पल भर में किसी भी उम्र के मनोभावों तक पहुंच जाती है। आपकी चेतना आपके चित्त के आवेग पर निर्भर है और चित्त चूंकि सूक्ष्म है, इसकी यात्रा में, आवागमन में कोई बंधन नहीं है। यही चेतना आपके अमरत्व का जरिया है। चेतना ही आपको अमर बनाती है।
जो आप का मूर्त आभास है, जो मैं-बोध है बाहरी तौर पर, वह तो पूरी सृष्टि में एक ही है मगर आपके इसी शरीर में बसी चेतना एक नहीं होकर, अनगिनत है।
आप किसी से बेहद प्रेम करते हैं तो आपकी चेतना उस व्यक्ति की चेतना से मिलकर एक हो जाती है। आप ईश्वर की भक्ति करते हैं तो आपकी चेतना उस विराट भाव से मिल जाती है और एक हो जाती है। चेतना का जैसे स्वभाव ही हो दूसरों में मिल जाने का। तो हुआ यह कि आपका शरीर तो एक ही रहता है मगर आपकी चेतना आपके प्रेमी या प्रेमिका की चेतना बन जाता है, ईश्वर की चेतना बन जाता है, आदि।
वैज्ञानिक कहते हैं, समस्त चेतनाओं के मूल सात रंग होते हैं। यानि इस संसार में जो 7 अरब से अधिक लोग हैं, उन्हें मूलतः सात वर्गों में बांटा जा सकता है। तो फिर यह हुआ कि आप जिस भी चेतना के हैं, आपकी चेतना का जो भी प्रबल व स्पष्ट रंग है, वैसी ही चेतना के करोड़ों लोग इस वक्त पृथ्वी पर हैं। आपका जो चित्त है, आपकी जो वृत्तियां हैं, आपकी जो सोच व दृष्टि है, वैसी और भी सैकड़ो लोगों की है। यानि आपका शरीर व दिमाग भले ही अपने आप में अपूर्व हो और अकेला ही हो, आपके ही शरीर के अंदर बसी हुई आपकी चेतना के समान ही सैकड़ों चेतनाएं हैं। तो सत्य यह है कि आप चाहें या ना चाहें, आपकी चेतना उन सैकड़ों में शामिल हो चुकी है, भले ही वे आपके प्रेम व आस्था के दायरे में हो या ना हों।
हां, ऐसा होता ही है...। आपके शरीर की सीमाएं हैं। आपका शरीर उन करोड़ों लोगों तक नहीं पहुंच पाता जो संभवतः आपके करीब न होकर दुनिया के विभन्न हिस्सों में रह रहे हैं। हां, आपके शरीर के आसपास जो भी लोग आपकी जैसी चेतना, चित्त, वृत्तियों व स्वबोध-स्वभाव के हैं, उनसे आपको प्रेम हो जाता है, वे आपकी आस्था के क्षितिज में सिमट जाते हैं और उनमें आपकी चेतना रच-बस जाती है। लेकिन, सूक्ष्म रूप से आपकी चेतना की सैकड़ों प्रतियां पूरे विश्व में बसी हुई हैं।
हम सब यह सोचते हैं कि एक बेटा पैदा हो जाये जो अपना वंश चलेगा और मेरे मरने के बाद भी, उसी बेटे की चेतना में मैं हमेशा जीवित रहूंगा। लेकिन वैज्ञानिक सत्य यह है कि सभी जीवों में जो मूल व प्राथमिक ईश्वर तत्व है वह है डीएनए और यह डीएनए एक ही है, जो अरबों साल पूर्व में बन चुका है। तो मामला यह है कि आपका बेटा हो या ना हो, आपका डीएनए पहले से ही इस सृष्टि में अजर-अमर हो चुका है।
तो कुल मिलाकर मामला यह है कि जैसे ही मैं हुआ, मैं चाहूं या ना चाहूं, मेरा शरीर नाशवान हो चुका है और मेरी चेतना अमर हो चुकी है। यह जो मेरा मैं-बोध है, स्व-बोध है, स्व-भाव है, जिसे मैं अपनी मूर्खता में विशिष्ट व एकल समझता हूं, वह एकल है नहीं। वह तो अरबों जीवों का हिस्सा मात्र है। तो, मैं, अपने जन्म के समय ही अमर होकर आया हूं। हां, मेरे इस तथाकथित शरीर के यात्रा की अपनी सीमाएं हैं, इसकी यात्रा मेरी चेतना की यात्रा से बिलकुल अलग है, भले ही यह चेतना मेरे शरीर की वजह से ही बनता है, मगर मेरे शरीर से अलग, इसकी यात्रा अनंत है। मेरा अमरत्व स्वयंसिद्ध है।
यही बात गीता में आस्था के शब्दों में बयां की गई है और इसे सभी मानते हैं। हां, मगर यह सत्य कहता है कि सभी जीवों से प्रेम करिये क्यूं कि इन करोड़ों लोगों में, सब में मैं का ही अंश है, यही वास्तविक अमरत्व का मार्ग है। यही बात गीता में भी कही गयी है। मगर, ज्यादातर लोग इसे नहीं मानते। वे सबसे प्रेम नहीं करना जानते। वे अमरत्व को नहीं समझते। वे स्व को नहीं समझते। शरीर और चेतना की यात्राओं को नहीं समझते।
प्रेम व करुणा के अलावा कोई भी तत्व व कर्म धर्म नहीं है न हो सकता है। अमरत्व तो स्वयंसिद्ध है, प्रेम व करुणा अगर चेतना में है तो यह सत्य आपके सामने खड़ा हो जाता है। नहीं तो फिर लोग इस सत्य की बेवजह तलाश में भटकते फिरते हैं और वह साये की तरह आपके पीछे लगा रहता है।
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इंस्टिंक्टिव व रियैक्टिव आटो-बिहेवियर से कभी प्राप्त नहीं हो सकती सफलता
अपने कर्म व व्यवहार के साथ जो भाव जुड़े हैं, उनकी पूरी जांच-परख कर लें। कहा गया है कि ईश्वर भाव में हैं। यानि, शायद ऐसे तो हैं नहीं, या कुछ होने जैसा प्रतीत नहीं होता, मगर, अगर हम अपने भावों को वैसा बना लें तो हैं, या हो जाते हैं।
बहुत कुछ, प्रेम भी वैसा ही है। कुछ वैसा मूर्त रूप में तो प्रेम होता नहीं या होता हुआ प्रतीत नहीं होता मगर अपने भावों से सब कुछ प्रेममय हो जाता है।
कृष्ण न गीता में अर्जुन से कहा - मुझे जो जिस भाव में भजता है, मैं उसे उसी भाव में प्राप्त होता हूं। अब लीजिये, यही बात तो प्रेम के लिए भी सही प्रतीत होती दिखती है - प्रेम को जो जिस भी भाव से मंजूर करता है या रखता है, प्रेम उसी भाव में उस व्यक्ति से मिलता है या उसे प्राप्त हो जाता है।
तो कुल मिलाकर यह बात निकलती हुई सी दिखती है कि जो है वह भाव ही है। असली कर्ता, यानि मुख्य सब्जेक्ट यह अमूर्त भाव ही है। तो अगर यह जीवन और दुनिया एक रंगशाला, यानि थियेटर है, तो जो चीफ प्रोटैगानिस्ट है, जो मुख्य पात्र व नायक है, यह इंसान नही, मैं या आप नहीं, बल्कि मैं और आप में जो अमूर्त भाव है, वह है।
तो बात यह निकल कर आ रही है कि चाहे प्रेम हो, भक्ति हो, सफलता हो, असफलता हो, उपलब्धि हो या अनुपलब्धि हो, जैसे हमारे भाव होंगे वैसे हमें अपने कर्म का फल या उसकी परिणिति उपलब्ध होगी, या उस उपलब्धता की प्रतीति होगी। तो भला यह भाव है क्या बला?
गौर से देखिये और शांत मन से समझिये तो यह भाव आपकी चेतना के
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